
अकेला कदम , दो कदम
ढूँढा पत्थर में परछाई
दूरी हुई कभी नहीं कम,
कभी थी सिर्फ़ तन्हाई .
मिली तो थी साथी,
न जाने कहाँ पीछे छूट गई
शायद पुकारी भी थी
एहसास ही नही हुआ.
रफ़्तार काफ़ी बढ़ गई
मानो अपनी गाड़ी में सवार
भागा चला जा रहा
किसी अनजान मंजिल की ओर.
थमा क्षण भर के लिए,
मधुशाला में मदिरापान की इच्छा,
खाने लगी किसी की याद
वापिस पुष्प को छूने की अभिलाषा.
क्षितिज पर अपनी लालिमा,
छोड़ते हुए डूबता सूरज को देखा,
सुशील चंद्रमा को इशारा करते देखा,
नखरीली अदाएं बिखेरने को तैयार देखा.
संध्या अपने जवानी पर
रात्रि कभी लगे करीब , कभी दूर इतना
शायद मंजिल पर होगा सवेरा,
शायद मिलेगा कोई नया नज़ारा.